
अयोध्या – स्वामी दयानंद, उन्नीसवीं शताब्दी के एक क्रांतिकारी समाज सुधारक और प्रखर बुद्धि के धनी, ने भारतीय समाज में नव जागरण की नई रोशनी जगाई। उन्होंने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को वेद-विरुद्ध ठहराते हुए समाज को वेदों की सच्चाई बताई और जाति प्रथा एवं आडम्बरों का विरोध किया। अपने शुद्ध स्वदेशी प्रेरणा से, उन्होंने “एक भाषा, एक देश, और स्वराज” के सिद्धांतों के बीज बोए, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को मजबूती मिली।
बिना किसी पारंपरिक विद्यालय या कॉलेज की औपचारिक शिक्षा लिए, स्वामी दयानंद ने विद्वान साधु-संन्यासियों से तर्क-वितर्क और धार्मिक ग्रंथों की विवेचना करना प्रारंभ किया। संस्कृत में भाषण देने का व्रत धारण करने के बाद उन्होंने हिन्दी में जनसाधारण से संवाद स्थापित किया, जिससे समाज में व्यापक जागरूकता फैलने लगी। उनके प्रयासों ने अंधी आस्था और जड़प्रज्ञ समाज को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे ज्ञान और बुद्धि की उपासना की परंपरा को पुनर्जीवित किया गया।
स्वामी दयानंद ने सभी धर्मों में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन कर, इंसान और बुद्धि की सच्ची भावना पर आधारित उदार राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त किया। कुंभ मेला में अंधविश्वासियों के विचारों का खंडन और काशी के विद्वानों से शास्त्रार्थ करते हुए, उन्होंने आडम्बरयुक्त सामाजिक ढांचे का विरोध किया। आज, जब अनेक राजनेता जातिवाद का सहारा लेकर स्वार्थी राजनीति चला रहे हैं, स्वामी दयानंद के विचार और उनके द्वारा स्थापित मूल्य भारतीय समाज में नव जागरण के लिए पुनः प्रासंगिक हो उठे हैं।