मिथक और निष्कर्ष

रसोई की रानी की बेढब कहानी – विजय गर्ग

उन्हें कोई वेतन नहीं, कोई छुट्टी नहीं, फिर भी सवाल

एक महिला से पूछा गया कि वह हाउसवाइफ है या वर्किंग वुमेन? उसका जवाब था, “मैं फुल-टाइम वर्किंग वुमेन हूं। सुबह सबको उठाती हूं, तो अलार्म घड़ी हूं, रसोइया हूं, धोबिन हूं, टेलर हूं, कामवाली बाई हूं, बच्चों की टीचर हूं, बड़ों की नर्स हूं और सिक्योरिटी गार्ड भी हूं।” इसके बावजूद उसे अक्सर यह सवाल झेलना पड़ता है कि वह दिनभर करती क्या है?

महिलाओं की इस मेहनत के बावजूद उनके द्वारा बनाए गए खाने पर सबसे अधिक टिप्पणी की जाती है। एक मजाकिया परिभाषा के अनुसार, “पत्नी वह शक्ति है जिसके घूरने भर से टिंडे की सब्जी में भी पनीर का स्वाद आने लगता है।” परिवारों की मांग भी अजीब है—रेस्टोरेंट में घर जैसा खाना चाहिए और घर में रेस्टोरेंट जैसा चटपटा!

आज की गृहिणियां यूट्यूब से नई-नई रेसिपी सीखकर अपने परिवार को खुश करने की कोशिश करती हैं, लेकिन अक्सर उन्हें “क्या मम्मी यार… ये क्या बना दिया?” जैसे कमेंट्स सुनने पड़ते हैं। यह विडंबना ही है कि पहले समाज चाहता था कि महिलाएं घरों में ही रहें, लेकिन आज हर परिवार वर्किंग बहू की तलाश में है। कारण भी स्पष्ट है—दहेज एक बार मिलेगा, लेकिन वर्किंग वुमेन हर महीने चेक लाएगी।

आज के समय में महिलाएं चाहे चांद तक पहुंच जाएं, लेकिन उनसे अब भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे रोटी-दाल बनाकर और चटनी कूटकर ही जाएं। यदि वे दिनभर किचन में काम करती हैं तो किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन यदि दो मिनट मोबाइल हाथ में ले लें, तो घर के लोग घूरने लगते हैं।

एक चुटकुला यह भी कहता है कि महिला दिवस 7 मार्च को था, लेकिन महिलाओं को तैयार होने में समय लग गया और वे 8 मार्च को पहुंचीं। इसी कारण महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है।

विजय गर्ग, सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, मलोट, पंजाब

 

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